जानिए! रमज़ान के रोज़े किस पर फ़र्ज़ है और किन पर माफ है और उसका फिदिया कितना है ?





KIN LOGO PAR ROZE FARZ HAI: 

हर मुसलमान मर्द औरत जो समझदार और बालिग हो उस पर रमज़ान के रोज़े फर्ज है.



KIN PAR ROZE MAAF HAI :

नाबालिग बच्चे और पागल पर रोज़े फर्ज नही हैं। औरतों को उनके महावारी  के दिनों में रोज़े रखने की इजाज़त नहीं है, रमज़ान के बाद इन रोज़ों की कज़ा करे जो कमज़ोर औरत हमल यानि पेट से हो या बच्चे को दूध पिलाती हो और रोज़े रखने की वजह से अपनी या बच्चे की जान जाने या सख्त बीमारी का खतरा महसूस करे वह रोज़े कज़ा कर सकती है यूं ही हर बीमार और कमज़ोर आदमी रमज़ान के रोज़े रखने की वजह से बीमारी खतरनाक होने या जान जाने का सही गुमान करे उसको भी रोज़ा कज़ा करने की इजाज़त है।



MUSAFIR KA ROZA:

जो शख़्स शरअन मुसाफ़िर है उसको कुरआन व हदीस में रमज़ान के रोज़े न रखने की इजाज़त दी गई है लेकिन सफ़र में अगर आराम हो कोई ख़ास परेशानी न हो तो रोज़ा रख लेना ही बेहतर है हाँ अगर न रखे तब भी वह गुनाहगार नहीं है जबकि रमज़ान के बाद कज़ा कर ले।

ROZE KA FIDIYA :

जो शख़्स बुढ़ापे की वजह से इतना कमजोर हो गया कि उसमें रोज़ा रखने की ताकत नहीं और आइंदा सही होने की भी कोई उम्मीद नहीं उस पर रोज़े माफ हैं। लेकिन हर रोज़े के बदले फ़िदया देना उस पर वाजिब है। और फिदया यह है कि हर रोज़े के बदले एक मोहताज को दोनों वक़्त पेट भरकर खाना खिलायें या हर रोज़े के बदले सदक़ा-ए-फ़ितर के बराबर गल्ला या रूपया ख़ैरात करे। जो ज़्यादा सही तहकीक के मुताबिक तकरीबन 2 किलो 45 ग्राम गेहूँ है।


आजकल सही मआनि में ज़रूरत मन्द मोहताज व मिसकीन नही मिलते आम तौर पर पेशावर फकीर हैं उनमें भी ज्यादातर बे नमाज़ी फ़ासिक व बदकार, गुन्डे लफंगे जुआरी और शराबी तक हैं लेहाजा दीनी मदरसों के तलबा और जरूरतमन्द मुस्तहक मस्जिदों के इमामों मोअज्जिनों को इस किस्म की रकमें या गल्ले दे दिये जायें तो ज़्यादा बेहतर है।

वह औरतें जिनके शौहर इन्तिकाल कर गये और उन्होने दूसरा निकाह भी न किया ऐसे ही वह घर जिनमें एक ही कमाने वाला था वह भी बीमार हो गया इस किस्म के लोग अगर साहिबे जायेदाद न हों सूदकात व ख़ैरात ज़कात के मुस्तहक हों ऐसों को तलाश करके देना चाहिये पेशावर और मांगने वालों से ऐसे ज़रूरतमन्दों को देना ज़्यादा सवाब का काम है। और उन लोगों को भी लेने में शर्म नही करना चाहिये आजकल कुछ लोगों को देखा कि वह बेईमानी ख़यानत और कर्ज व उधार लेकर न देने के आदी हैं लेकिन अगर कोई ज़कात सदका ख़ैरात या फिदये की रकम दे तो इस को लेने में अपनी तौहीन समझते हैं, यह उसकी भूल है।



अगर कोई शख़्स ज़कात, फ़ितरह, सदका वगैरह व ख़ैरात का मुस्तहक और ज़रूरत मन्द हो लेकिन लेने में शर्म महसूस करे तो उसको बताया न जाये कि यह ज़कात खैरात है हदिया या तोहफा नियोता वगैरह जिस नाम से चाहे देदे आपकी ज़कात, फ़िदया, क़फ्फारा अदा हो जाएंगे।

और जिस बूढ़े के तन्दुरुस्त होने की उम्मीद न हो और साथ ही गरीब व नादार फिदया देने पर कुदरत न रखता हो उस को चाहिए कि तौबा व इस्तिग़फ़ार करता रहे उसके लिए रोज़े माफ़ हैं।

📚(ख़ज़ाइनुल इरफ़ान)
📚रमज़ान का तोहफ़ा सफ़हा 9,10📚



Note: अगर कोई मसला समझ ना आया हो तो उसके लिए आप आपके करीबी मुफ्ती साहब या किसी आलिम साहब से मिलकर समझे. और हमें भी कॉमेंट में बताए ताकि हम भी इसलाह कर सके.

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