क्या इमाम के लिए मुक़र्रिर (तक़रीर करने वाला) होना ज़रूरी है ?


क्या इमाम के लिए मुक़र्रिर (तक़रीर करने वाला) होना ज़रूरी है ?

MASJID KE IMAM KO TAQREER KARNE VALA BHI HONA CHAHIYE

आजकल काफ़ी जगह की अवाम (आम लोग) मस्जिद में जब किसी को इमामत के लिए रखते हैं तो उससे तक़रीर कराते हैं, अगर वह धूम-धड़ाके से, खूब कूद-फांद कर, हाथ पांव फेंक कर, जोशीले अंदाज़ में जज़्बाती तक़रीर कर दे तो बड़े खुश होते हैं, और उसको इमामत के लिए पसंद करते हैं, यहां तक कि बाअज़ जगह तो खुश इलहानी और अच्छी आवाज़ से नातें और नज्में पढ़ दे तो उसको बहुत बढ़िया इमाम ख़्याल करते हैं, इस बात की तरफ़ तवज्जोह नहीं देते कि उसका कुरान शरीफ ग़लत है या सही? उसको मसाइल-ए-दीनिया से बा-क़द्रे हाजत वाक़फ़ियत है या नहीं ? और उसका किरदार व अमल मनसबे इमामत के लिए मुनासिब है या नहीं?_ 

अगरचे तक़रीर व बयान व ख़िताबत अगर उसूल व शराइत के साथ हो तो उससे दीन को तक़वियत (ताक़त) हासिल होती है और हुई है। लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं कि दीनदारी तक़वा शिआरी और ख़ौफ़-ए-ख़ुदा अमूमन कम सुख़न (कम बोलने वालों) और संजीदा मिज़ाज लोगों में ज़्यादा मिलता है। ज़ुबान ज़ोर और मुंह के मज़बूत लोग सब काम मुंह और ज़ुबान से ही चलाना चाहते हैं,, और इस्लाम गुफ़्तार से ज़्यादा किरदार से फैला है, और आजकल के ज़्यादातर मौलवियों और इमामों के लिए बजाए तक़रीर व खिताबत के' ज़िम्मेदार उलमाए अहले सुन्नत की आम फ़हम (आसान) अंदाज़ में लिखी हुई किताबें पढ़कर अवाम को सुनाना ज़्यादा मुनासिब और बेहतर है!_

"ख़ुलासा यह कि आजकल बाअ़ज़ जगह लोग जो इमाम के लिए मुक़र्रिर (तेज़ तर्रार तक़रीर करने वाला) होना ज़रूरी ख़्याल करते हैं यह लोग ग़लती पर हैं

*📚(ग़लत फ़हमियां और उनकी इस्लाह, सफ़ह- 40-41)*

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