KYA TAMAM NABI ZINDA HAI. (सुन्नियों का है ये अकीदा आका हमारे ज़िंदा है)


TAMAM NABI ZINDA HAI :
         
सुन्नियों का है ये अकीदा आका हमारे ज़िंदा है

वहाबियों के इमाम इस्माईल देहलवी ने अपनी नापाक किताब तक़वियातुल ईमान में हुज़ूर सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम की शान में बहुत सारी गुस्ताखियां की और उसी में ये भी लिख मारा कि खुद हुज़ूर फरमाते हैं कि "एक दिन मैं भी मर कर मिटटी में मिल जाऊंगा" माज़ अल्लाह,
आईये क़ुर्आन से ही पूछ लेते हैं कि क्या वाकई ऐसा है तो जवाब में मौला इरशाद फरमाता है कि


क़ुर्आन : और जो खुदा की राह में मारे जायें उन्हें मुर्दा ना कहो बल्कि वो ज़िंदा हैं हां तुम्हें खबर नहीं. 



इस आयत में शहीद का मौत के बाद भी ज़िंदा होने का सबूत है अब अगर कोई कहे कि ये ज़िन्दगी दुनिया में नहीं बल्कि क़यामत के बाद की बताई गयी है तो वो सबसे बड़ा जाहिल है क्योंकि क़यामत के बाद तो मुसलमान ही क्या बल्कि काफिरो मुशरिक मुर्तद सब ही ज़िंदा हो जायेंगे और अपने आमाल के हिसाब से ठिकाना पायेंगे तो फिर मौला को सराहतन ये ज़िक्र करने की क्या ज़रूरत थी कि "वो ज़िंदा हैं और तुम्हें शुऊर नहीं" बल्कि

दूसरी जगह इरशाद फरमाता है कि "वो रोज़ी भी पाते हैं" तो मालूम हुआ कि वो दुनिया में ही मरकर फिर जिस्म जिस्मानियत के साथ ज़िंदा हो जाते हैं बस उनकी ज़िन्दगी को हम समझ नहीं सकते,यहां ऐतराज़ करने वाला एक ऐतराज़ और कर सकता है बल्कि करता है कि ये आयत तो शहीद के हक़ में नाज़िल हुई है तो इसमें अम्बिया की ज़िन्दगी कैसे साबित है तो याद रखिये कि ये ऐतराज़ करके उसने अपने जाहिल होने का एक और सबूत दे दिया वो इस तरह कि ये ऐतराज़ ऐसा ही है जैसा कि कोई ये कहे कि जितनी पावर एक सिपाही को है उतनी तो इंस्पेक्टर को भी नहीं है या जितनी पावर इंस्पेक्टर को है उतनी तो डी.एम को भी नहीं है,बात समझ में आ गयी होगी यानि कि जो मरतबे में बड़ा होता जायेगा उसका इख्तियार और पावर भी बढ़ता जायेगा और उस बड़े का पावर कभी कभी छोटे के पावर को दिखाकर बताई जाती है मसलन घर की औलाद यानि बेटा बेटी जो भी सामान इस्तेमाल करते हैं चाहे वो कार हो बाईक हो मोबाइल हो कैश हो कुछ भी हो उससे पता यही चलता है कि इनका बाप बड़ा अमीर आदमी है जब ही तो अपने बच्चों को इतना सब कुछ दे रखा है*

अब असल बात की तरफ चलते हैं कि एक बशर से लेकर मुस्तफा जाने रहमत सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम के मरतबे के बीच *27* दर्जों का फर्क है और शहीद तो सिर्फ चौथे ही दर्जे पर फायज़ है तो उसके ऊपर वाले जितने भी मरतबे के लोग हैं चाहे वो मुजतहिद हों औताद हों अबदाल हों क़ुतुब हों क़ुतुबुल अक़्ताब हों ग़ौस हों ग़ौसे आज़म हों ताबई हों सहाबी हों जितने भी होंगे उन सबको उससे ज़्यादा फज़ीलत हासिल होगी,तो जब शहीद को मौला तआला ज़िन्दा कह रहा है तो उसके ऊपर वाले जितने हैं सब ज़िंदा होंगे तो अब अंदाज़ा लगाइये ऐसे जाहिलों की जिहालत की कि वो नबियों को माज़ अल्लाह मुर्दा कह रहे हैं, इतनी तम्हीद के बाद क़ुर्आन की ये आयत पेश करने की ज़रूरत नहीं थी फिर भी इसे पढ़कर अपना ईमान ताज़ा कर लीजिये मौला फरमाता है कि


क़ुर्आन: फिर जब हमने उस पर मौत का हुक्म भेजा,और जिन्नों को उसकी मौत ना बताई मगर ज़मीन की दीमक ने कि उसका असा खाती थी फिर जब सुलेमान ज़मीन पर आया जिन्नो की हक़ीक़त खुल गई.
 
 पारा 22,सूरह सबा,आयत 14

वाक़िया ये है कि हज़रत सुलेमान अलैहिस्सलाम मस्जिदे अक़सा यानि बैतुल मुक़द्दस की तामीर फरमा रहे थे और आपने उस काम में जिन्नातों को लगा रखा था,दिन भर जिन्नात काम करते और आप उन सबका मुआयना करते रहते जब आप रात को वापस जाते तो वो सब भी भाग जाते और काम बंद कर देते,अचानक एक दिन हज़रत सुलेमान अलैहिस्सलाम अपने असा पर टेक लगाकर खड़े थे और आपकी रूह कब्ज़ हो गयी और जिन्नात काम में मशगूल रहे अब जब रात हुई तो हज़रत सुलेमान अलैहिस्सलाम हिले ही नहीं बल्कि वैसे ही खड़े रहे अब जिन्नातों को इतनी हिम्मत नहीं हुई कि वो काम बन्द कर पाते तो रातों दिन वो काम करते रहे इसी तरह पूरा एक साल बीत गया और मस्जिदे अक़्सा बनकर मुकम्मल हो गई,

इस बीच आपके असा को दीमक खाती रही जब साल गुज़रा तो असा टूट गया और आपका जिस्म मुबारक ज़मीन पर आ गया तब जिन्नातों को मालूम हुआ कि हज़रत तो साल भर पहले ही विसाल फरमा चुके हैं और उन्होंने अपने बारे में जो ये फैला रखा था कि हम ग़ैब की बातें जानते हैं तो उसकी हक़ीक़त खुल गई कि अगर उन्हें ग़ैब होता तो क्यों साल भर पहले ही हज़रत सुलेमान अलैहिस्सलाम की मौत का इल्म ना हुआ और क्यों साल भर मेहनत मशक़्क़त में पड़े रहे,अब ज़रा सोचिये कि अगर अम्बिया अलैहिस्सलाम मरकर मिट्टी में मिल जाने वाले लोग होते माज़ अल्लाह तो क्या साल भर उनका जिस्म वैसे ही तारो ताज़ा रहता जबकि आम इंसान की लाश से दूसरे दिन ही बदबू आने लगती है तो मानना पड़ेगा कि वो दुनिया में ही मौत के बाद भी ज़िंदा ही रहते हैं इसीलिए तो मेरे आलाहज़रत अज़ीमुल बरकत रज़ियल्लाहु तआला अन्हु फरमाते हैं कि

*अम्बिया को भी अजल आनी है* 

*मगर ऐसी कि फक़त आनी है* 
*फिर उसी आन के बाद उनकी हयात* 
*मिस्ल साबिक़ वही जिस्मानी है*

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